बिहार चुनाव में ओबीसी-ईबीसी फैक्टर हार-जीत तय करेगा, सभी दलों के लिए इस 51फीसदी वोट बैंक में सेंध लगाने की चुनौती

0 8

नई दिल्ली : बिहार चुनाव में कोई दल कितना भी जोर लगा ले, लेकिन जब तक वह पिछड़ी (ओबीसी) और अति पिछड़ी जातियों (ईबीसी) के वोट बैंक में सेंध नहीं लगाएगा, उसके लिए सत्ता हासिल करना मुश्किल है। राज्य में इन दो समूहों की आबादी करीब 52 फीसदी है। इसलिए चुनावी राजनीति इन पर सर्वाधिक केंद्रित रहती है।
अन्य राज्यों की तुलना में बिहार के जातीय समीकरण चुनाव को कहीं ज्यादा जटिल बना देते हैं। क्योंकि अति पिछड़ी और पिछड़ी जातियों की आबादी बहुत ज्यादा है। 51 फीसदी के इस वोट बैंक पर सबकी नजरें रहती हैं। जो दल जातीय राजनीति करते हैं, वे भी और कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल भी इस वोट वैंक में सेंध मारने के प्रयास में रहते हैं। कुछ हद तक कामयाबी भी मिलती है।
ओबीसी और ईबीसी के वोट बिहार के सभी क्षेत्रीय दलों में विभाजित भी होते हैं, लेकिन इस 51 फीसदी में से एक बड़ा हिस्सा जिस दल के पक्ष में जाएगा, उसके लिए सत्ता की राह आसान होगी। कहने की जरूरत नहीं कि पिछले चुनावों में इन मतों का बड़ा हिस्सा महागठबंधन को गया था। उसकी वजह यह थी कि महागठबंधन का एक बेहतरीन गठजोड़ बना था, जिसे वोट देना इन दलों को रास आता था, लेकिन इस बार स्थितियां बदली हुई हैं।
इस बार जदयू के भाजपा के साथ होने, लोजपा के अलग मैदान में उतरने, मुस्लिम एवं दलित रुझान वाले दलों जैसे एमआईएम और बीएसपी आदि के गठबंधन ने इन मतों के विभाजित होने का खतरा पैदा कर दिया है।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सभी दल जातीय राजनीति करते हैं। राष्ट्रीय दल भी करते हैं। जातीय समीकरणों के आधार पर दलों ने सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारे हैं, जो उस वर्ग को प्रभावित करते हैं। इसलिए जो दल 52 फीसदी के इस जातियों के समूह में ज्यादा सेंध लगाएगा, उसे बढ़त मिलेगी।
राज्य में ओबीसी और ईबीसी की आबादी करीब-करीब बराबर 26-26 फीसदी है। ओबीसी में 14 फीसदी यादव, 4 फीसदी कुर्मी, 8 फीसदी कुशवाहा हैं। इसके अलावा दलों को 16 फीसदी दलित-महादलित और करीब 17 फीसदी मुस्लिम मतों तथा 15 फीसदी सवर्ण मतों के लिए भी अलग से जद्दोजहद करनी पड़ेगी।

Leave A Reply

Your email address will not be published.