साधू, संतों, वालियों, सूफियों के यहां दुआएं क्यों कुबूल होती हैं?

  • फिरोज़ बख़्त अहमद

विश्व पटल पर धर्मों के संबंध में बहुत कुछ कहा गया है, कहा जा रहा है और भविष्य में भी चलती दुनिया तक कहा जाता रहेगा। भले ही कोई किसी भी धर्म की हिमायत में हो, या मुखालिफत में, सभी धर्मों की अपनी अहमियत है और रहेगी, भले ही कोई माने या न माने! यदि यह कहा जाए कि विश्व धर्मों की भारत जन्म व कर्म स्थली है तो अतिश्योक्ति न होगी। भारत से अलग केवल जरुस्लम और मक्का ही विश्व विख्यात धर्म स्थल हैं, जो धर्मों के प्राचीनतम नगरी वाराणसी की तरह हैं।

कोई तो कारण है कि विदेश से विभिन्न धर्मों के लोग अध्यात्मिक शांति के लिए भारत में कैलाश पर्वत, भारतीय वैदिक धर्म स्थलों व सूफ़ी दरगाहों पर जाते हैं। आखिर कुछ तो मिलता है इन अनुयायियों को इन में इन में! लेखक हाल ही में, अपनी पत्नी के साथ, कि जिनको इस सूफ़ी संत में अथाह आस्था है, उनकी खानकाह में हाज़िर हुआ था, क्योंकि उनका मानना है की इनकी चौखट पर दुआ मांगने से, वह क़ुबूल होती है। वैसे इस्लाम धर्म के ही कुछ अनुयायियों का मानना है कि चाहे वे चिश्तिया सूफ़ी संत हों, देवबंदी या बरेलवी हों, या कादिरिया सिलसिला हो, अल्लाह से दुआ या मन्नत मांगने के लिए इन सभी “एजेंटों” की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि, अल्लाह, स्वयं ही पूर्ण रूप से अपने बंदों की मन्नतें पूरी करता है। यह भी कहा जाता है कि सऊदी अरब में इन सूफ़ी संतों आदि को नहीं मानते बल्कि उनकी खानकाहों में जाने वालों को “बिदती” (गुनहगार) बोलते हैं। यह सऊदी सोच कहां तक सही है, इसका फ़ैसला इन्सानों नहीं बल्कि अल्लाह के हाथ में है। हालांकि इस्लाम की बुनियादी सोच एक ही है, मगर जहां, जहां इस्लाम फैला है, उस ने अपने उन्हीं परिस्थितियों में ढाल लिया है, जहां मुस्लिम दूसरे धर्मों के लोगों के साथ रहते हैं। उदाहरण के तौर पर बंगाल के मुस्लिमों का रहन-सहन बंगाल के ब्राह्मण हिंद समाज की तरह ही होता है। चाहे शादी-ब्याह की रस्में हों, खान-पान हो, पहनावा हो, भाषा हो, या कुछ भी हो, सभी एक मिश्रित सामाजिक संस्कृति का होता है। हां, धार्मिक एतबार से वे सभी अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं! इसी में भारत का सौंदर्य और आत्मा है।

मिसाल के तौर पर गुड़गांव से आगे सोनीपत के बस स्टैंड के सामने एक सड़क जा रही है, जिस पर आगे चल कर एक साधू संत का डेरा है, जिन्हें दुनिया प्रेम भगत के नाम से जानती है। वे कोई नाम, प्रसिद्धि नहीं चाहते, मगर बावाजूद इसके, पूर्ण विश्व से लोग उनकी कुटिया में इस लिए आते हैं की उनके हाथ भगवान ने जबर्दस्त शिफा का वरदान दिया है। शरीर में कहीं भी किसी भी हड्डी के जोड़ में दर्द हो, जब शरीर में वे तीन स्थानों पर तीन बार हलके से दबा देते हैं तो, दर्द कितना ही तकलीफदेह हो, ठीक हो जाता है। यह लेखक निजी तजुर्बे के आधार पर लिख रहा है, क्योंकि कुछ समय पूर्व उसकी गर्दन में दर्द हो गया था, जो जाने के नाम नहीं ले रहा था। किसी ने उसे प्रेम भगतजी का पता दे दिया और वह वहां प्रातः धुंधलके में वहां पहुंच गया, क्योंकि प्रेम भगतजी, सुबह को ही मरीजों को देखते हैं। लेखक ti नसें उन्हों ने गर्दन, कमर और टखने के पास से दबाइं तो दर्द ठीक हो गया। भगत जी कोई ऐक्यूप्रेशर के चिकित्सक नहीं, बल्कि किसी भी सूफ़ी संत की भांति अपनी दुआ और चिकित्सा में ऐसी दैवी शक्ति रखते हैं, को विशेष रूप से अल्लाह ने उन्हें प्रदान कर रखी है। किसी से वे कोई पैसा नहीं लेते, हां, लेखक ने दान पेटिका में, बीस रुपए डाल दिए थे। हड्डियों के जोड़ों के दर्द के बड़े-बड़े नामी हस्पतालों से नाकामियाब इलाज करा कर लोग यहां बस तीन दिन नसें दबवा कर ठीक हो जाते हैं। उनके उपचार व दुआओं में इस लिए तासीर है कि ऐसे लोग तबियत से वली-उस-सिफत और किरदार से शरीफ़-उन-नफ्स होते हैं।

लेखक अभी विश्व विख्यात सूफ़ी दरगाह, हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की खानकाह में हाज़िर हुआ था था, जिनके बारे में उनकी सेवा में संलग्न, इस दौर के बड़े सूफी खुद्दाम ने बताया कि वे सारे दिन रोज़ा रखते थे और रात को अल्लाह की इबादत किया करते थे। उनकी आंखें सुर्ख हो जाती थीं। शाम को जब वे रोज़ा खोलते थे तो केवल पानी और उस में सूखी रोटी भिगो कर खाते थे। अपने लिए दरगाह में आए पकवान व खान-पान वे खानकाह में हाज़िर गरीबों व यातीमों को परोस देते! यही बात हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के अतिरिक्त हजरत ख़्वाजा निजामुद्दीन औलिया, हज़रत ख़्वाजा बख़्तियार काकी, हज़रत ख़्वाजा गेसु दराज़, हज़रत ख़्वाजा नूरुद्दीन वली (नंद ऋषि) के संबंध में कही जाती है। ये संत सभी का भला चाहने वाले थे।

दरगाह के मुख्य गद्दी नशीन व खुद्दाम, सूफी सलमान चिश्ती बताते हैं की इस सूफी संत के महान उपदेशों और शिक्षाओं के बड़े-ब़ड़े मुगल बादशाह भी कायल थे। उन्होंने लोगों को कठिन परिस्थितियों में भी खुश रहना, अनुशासित रहना, सभी धर्मों का आदर करना, गरीबो, जरुरतमंदों की सहायता करना, आपस में प्रेम करना समेत कई महान उपदेश दिए। उनके महान उपदेश और शिक्षाओं ने लोगों पर गहरा प्रभाव छोड़ा और वे उनके मुरीद हो गए। इस महान सूफी संत ने ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने करीब 114 साल की उम्र में ईश्वर की एकांत में प्रार्थना करने के लिए खुद को करीब 6 दिन तक एक कमरे में बंद कर लिया था और अपने नश्वर शरीर को अजमेर में ही त्याग दिया। वहीं जहां उन्होंने अपनी देह त्यागी थी, वहीं ख्वाजा साहब का मकबरा बना दिया गया, जो कि अजमेर शरीफ की दरगाह, ख्वाजा मुईनुउद्दीन चिश्वती की दरगाह और ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह के रुप में मशहूर है।

इस दरगाह से सभी धर्मों के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। इसे सर्वधर्म सद्भाव की अदभुत मिसाल भी माना जाता है। ख्वाजा साहब की दरगाह में हर मजहब के लोग अपना मत्था टेकने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो भी ख्वाजा के दर पर आता है कभी भी खाली हाथ नहीं लौटता है, यहां आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है। ख्वाजा की मजार पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, बीजेपी के दिग्गत नेता स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी, देश की पहली महिला पीएम इंदिरा गांधी, बराक ओबामा समेत कई नामचीन और मशहूर शख्सियतों ने अपना मत्था टेका है। मौजूदा प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी की केंद्र व भाजपा सरकार की ओर से भी, यहां, उर्स के अवसर पर चादर चढ़ाई जाती है। सरवर चिश्ती के अनुसर जब बादशाह अकबर के यहां संतान नहीं हो रही थी तो वह पैदल सैंकड़ों मील चल कर इस सूफ़ी की खानकाह में आए और एक खुद्दाम से अपने लिए औलाद के दुआ करवाई तो उनके बेटा पैदा हुआ। यही कारण है कि मन्नतें मनवाने के लिए, पूर्ण विश्व से यहां बंदे आते हैं और जब मन्नत पूरी हो जाती है तो फिर शुक्रिया अदा करने आते हैं।

इसके साथ ही ख्वाजा के दरबार में अक्सर बड़े-बड़े राजनेता एवं सेलिब्रिटीज आते रहते हैं और अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं एवं आस्था की चादर चढ़ाते हैं। सूफ़ी संत के कारण, न सिर्फ दरगाह व उसकी गालियों बल्कि पूर्ण अजमेर, राजस्थान और भारत में यहां 24x7x365, बड़ी रौनक, बहार और गुल ओ गुलज़ार नूर रहते हैं। जय हिंद! भारत माता की जय!

(लेखक पूर्ण कुलाधिपति व भारत रत्न, मौलाना अबुल कलाम आजाद के वंशज हैं)