प्रवासी मजदूरों की परेशानियों पर आधारित ममता शुक्ला की अनोखी नज़्म।
प्रवासी श्रामिक
*ममता शुक्ला
सावला चेहरा लिए
बड़ी आँखों में सपना लिए
शायद बारह बरस की प्रचड भूख ही थी
जो मेरे काले फटे होटो पर
हाशिये सी लिखी थी
ज़िन्दगी की कश् म् कश् के बीच
उत्तर ढूँढ़ती बचपन बचाओ य़ा भूख
उफ़ ये कमबकत भूख ही तो बचपन पर हावी थी
तुमहे क्या खबर भूख की आग ने
ना जाने कब 150 किलो मीटर का लमबा सफर तय कर लिया
मुझे श्रम से कभी गुरेज ना था
सोचा शायद लाल मिर्च के खेतो मे तकदीर हरी हो जायेगी
हाँ सावन के अंधे को तो चारो ओर
मीलो कोसो दुर हरा ही हरा दिखता है
निकल पड़ी बाल मजदूर बन मैं
“कैलाश ” पे खडे “सत्यायार्थी” को दडवत प्रणाम करते
अब तो दीवाल पे लिखा slogan
” बेटी बचाओ, बेटी पढाओ”
ना जाने कब भूख की पीडा की चिंगारी ने उसे मटीय़ामेट कर दिया
मेरी छोटी ऊंगलियो को ना जाने कब लाल मिर्चियो से दोस्ती हो गई
कि घटो हम एक दुसरे का हाथ पकड कोसो का सफर तय करते
साथ हसते खिलखिलाते
ढ़ेरो गाव की काहानिया सुनते सुनाते
ठणड़ी हवा की तासीर गर्म होने लगी
ना जाने कब अनगिनत दिन
तैरते फिसलते फागुन से चैत और बैसाख हो गये
आज इतना कौतुहल क्यो है
क्या हुआ है, नान्नहा मन बेचैँन हो उठा
सुनने मे आया है शीला काकी कह रही थी
कल तडके हम सब गाव कूच करेंगे
“पर क्यो, काकी क्या हुआ ?
“अरे ! ये मुआ करोना ज़गल में आग की तरह फैल
रहा है लगता है किसी को नहीं बकशेगा, और हमारे मलिक ना अब काम देंगे ना पैसा”
खेतो से भीड का सेलाब उमडता जा रहा था
कही थमता नज़र नहीं आता |
बहतर घाटो का ये सफर
क्या मेरे न्नहे पाव की आजमाइश चाहता
नन्हा मन न जाने आज कैसे इतना बड़ा हो गया
कान में फुसफुसाया ” अरे अम्मा बाट जोहती होगी, चल
और मैं चल पडी |
मील के पत्थर की घतटी संख्या
आगे बढ़ने का हौसला देती
आगे,और आगे, और भी आगे
आज ना जाने क्यो सूरज इतना क्यो उधिया रहा हॅ
मेरा पसीना भाप बन कर आकाश में भाप बन रहा है
गर्म हवा शरीर को दैत की तरह दबोच रही थी
मैं साथियो से बिछडती जा रही हू
मील का पत्थर ना जाने कब पलको पे आ बैठा
अब तो अम्मा आँखे भी नहीं खुलती
कसमसाहट, थरथराहट, घबराहट,
उफ़ ये ऊखड़ती सासे, सुखते होंट,
अरे ये क्या , मेरी नबज दूबती जा रही है |
रेगीसतान में प्यासे ऊट की तरह
अचानक पैर लड़खडाये और मैं गिर गई |
क्या ये मेरा अंत है, नहीं , मेरी म्रिगतृष्णा का अंत है।
मेरे काले होटो से रिस्ता लहु, रक्तबीज बन कर पनपेगा
हर एक रक्तबीज अनेको जमालो मकदम को को जन्म देगी
और ये सिलसिला सदियों चालेगा
जहां सैकडो ज़मालो मकदम बाल मजदूर बन के पनपेगे
और राषट्रीय् निरमाण की नीव रखेगे
पर अफसोस इनकी कब्रो पर ना हर बरस कोई मेला लगेगा ना कोई नमो निशा होगा |